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ये कैसा भय भरा रहा है

हर शख्श के अंदर ये कैसा भय भरा रहा है
चाँद पे जाने वालो को भी ये कौन डरा रहा है
खेलते कूदते बच्चों को घर में कैद करा रहा है
ऐसा तो नहीं प्रकृति हमे कुछ याद दिला रहा है
बादल है घना तो छटेगा ही,अंधेरा हो कितना मिटेगा ही
कुछ और दिन परेशां कर तेरा दवा इजाद किया जा रहा है
                                                  गोविन्द कुंवर